छवि
जा मेरे मन गगन से
ना लौट बन के रवि
हर दिन मेरे स्मरण से
तेरे रंग अब पोंछने हैं
रक्तमय इस कलाई से
ये आकार अब मिटाने हैं
निजधारा से या सलाई से
धुल जा ओ छवि
जा मेरे मन गगन से
तुझे जाना ही है
या बल से या नमन से
बदला है कुछ आज के मौसम बदला है
नंगे बिस्तर पर अधढका बदन
ठन्डी हवा से टकरा के फिर मिला है
ज़िन्दा हूं फिर आज के मौसम बदला है
आज़ाद टांगों और ख़ुले बाज़ुओं ने
ठन्डी चादर का हर कोना फिर छुआ है
काफ़िर हूं फिर आज के मौसम बदला है
टटोलती उँगलियों और सहलाती हथेलियों ने
ठन्डी रात को महबूब फिर चुना है
जवां हूं फिर आज के मौसम बदला हैसीने में रात भरे हर रात यूं निकलती है
कभी मैं इसको भरता हूं कभी ये मुझे निगलती है
इन आवारा कदमों तक जब महक रात की जाती है
फिर हाथ जेब में जाते हैं फिर नज़र झुकी उठ जाती है
सीने में रात भरे हर रात यूं निकलती है
कभी मैं इसमें कभी ये मुझमें मैं चलता हूं ये बहती है
किसी रीढ़ के कोने से कोई दर्द जवां कर लाती है
फिर कन्धे ऊंचे होते हैं फिर लहर वो आके जाती है
सीने में रात भरे हर रात यूं निकलती है
तिनके का सहारा होता है मैं जलता हूं ये सुलगती है
एक दोस्त से पूछा कि ब्लौग क्या है जानते हो? दोस्त ने जैसे ही ना कहा तो अपने चेहरे पर दुनियादारी की मुस्कुराहट उभर आई। सोचा चलो इसी बहाने अपना डेढ़पन जता डालें। हमने कहा मियाँ किस अरसे में रहते हो। आजकल हर कोई ब्लौग कर रहा है। वो बोले 'कर रहा है' से मतलब? तो हमने कहा अरे मियाँ शायद इसी मामले में पीछे रह गए तुम वरना लगता है भाषा के नारीकरण से तो ख़ूब वाक़िफ़ हो। हमारे दोस्त अपनी कब्ज़ियत को पूरी तरह ज़ाहिर करते हुए बोले, "किसके क्या से वाक़िफ़ हो?"। हमने कहा यार बनो मत, माना हमने ब्लौग पर तुम्हारी चुटकी ली लेकिन इसका मतलब ये नहीं के तुम अब हमारी टांग खींचो। इस पर भी जब उनकी कब्ज़ हल्की नहीं हुई तो हमने सोचा कि शायद इन्हें लग रहा है कि जैसे इन्हे ब्लौग नहीं पता वैसे ही हमें नारीवाद के बारे में कुछ नहीं पता। इसी लिए अनजान बनने का नाटक किया जा रहा है। फ़िर भी हमने सफाई देने की तर्ज़ से बचते हुए कहा, "अरे मियाँ आप नहीं जानते आजकल अंग्रेज़ी ज़बान से ज़ुल्मोसितम को मिटाने की मुहिम चालू है। इसलिए 'कोई' या 'फलाना' अब 'करता' नहीं 'करती' है, 'होता' नहीं 'होती' है। और ग़लती से किसी अदाकारा को 'ऐक्ट्रेस' ना कह बैठना; अब सब 'एक्टर' हैं, चाहे लड़का हो या लड़की। समझे?"। हमारे दोस्त तुनक कर बोले, "अरे ये क्या तुक हुई? एक जगह पहचान बनाओ, एक जगह से मिटाओ?" हमने अपनी सिगरेट का एक लम्बा कश भरते हुए दूसरे कोने की तरफ़ देखा और कहा, "छोड़ो मियाँ, ये ऊंची चिड़िया है, तुम्हारे हाथ नहीं आएगी।" दूसरा दम भरते हुए हमने अपनी भवें ऊंची कीं और अंदाज़ से कहा, "इसे नारीवाद कहते हैं"। "नारीनाद? ये नारीनाद क्या है? जैसे शंखनाद?", वो बोले। हम ठहाका लगाते हुए बोले, "'वाद' मियाँ 'वाद', 'नाद' नहीं। 'नाद' मतलब 'तेज़ या ऊंची आवाज़' और 'वाद' मतलब 'मुहिम' या 'सोच'। अच्छा मज़ाक कर लेते हो।" हमारे दोस्त ने अपनी समझदारी का दम भरते हुई कहा, "नहीं नहीं बात तो सही है। ज़ुल्म तो है ही। औरतों को सही पहचान नहीं मिली है। देखो जैसे कि, 'आएगा, आएगा, आएगा आने वाला...' तो सही है, लेकिन 'मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की क़सम...' और 'पत्थर के सनम...' तो बिल्कुल ग़लत है। जहां लड़की की तरफ़ इशारा है वहाँ 'मेरे' और 'के' का इस्तेमाल क्यों?" हमारा कश आधे में ही रह गया। हमने गर्दन घुमा के अपने दोस्त की तरफ़ देखा तो उनके चेहरे पर कब्ज़ियत नहीं गहरी सोच झलक रही थी। हमने हाँ हाँ करते हुए कहा, "शायद इसीलिए तुमने 'ब्लौग कर रहा है' सुन के टोक दिया और इतनी देर से बिना वजह हमारी टांग खींच रहे हो, है कि नहीं?"। ये सुनते ही उनके चेहरे पर कब्ज़ियत फ़िर से मंडराने लगी। हमने कहा यार बस हुआ, अब और मज़ाक ना उड़ाओ हमारा। इस पर वो हिचकिचा के बोले, "मियाँ हमने तो 'कर रहा है' पर इसलिए टोका था कि हमें लगा कोई चीज़ है, की जाने वाली चीज़ है ये नहीं सोचा था।"। अब तो हम अन्दर से बौखला उठे। समझ नहीं आ रहा था कि छक्कन मियाँ सही में हमारी ले रहे हैं या फ़िर अव्वल दर्जे के बेवक़ूफ़ हैं। हमने किसी तरह अपना आपा बनाए रखते हुए कहा, "थी तो चीज़ ही लेकिन जब काफी लोग इस्तेमाल करने लगे तो ब्लौग के एक चीज़ होने के साथ साथ उसको इस्तेमाल करना 'ब्लौग करना' हो गया। ठीक उसी तरह जैसे गूगल की मदद से कुछ ढूँढना 'गूगल करना' हो गया। कब्ज़ियत से शागिर्दगी की तरफ़ बढ़ते हुए छक्कन मियाँ बोले, "गूगल?"। उनका ये कहना था कि हमें रहमत की चीखें, ग्लास चम्मचों की खनक, और अपने समोसों की महक सब वापस आती हुई महसूस हुईं।
क्या कहें समझ में नहीं आता। ये तो एक बहुत ही अच्छी शुरुआत है। कहने के लिए कुछ है भी नहीं मगर कहने का मन ज़रूर है। ब्लौगर का ट्रांसलिटरेशन सॉफ्टवेअर काफ़ी असरदार है। काफ़ी कामयाब। अभी तक मेरा ध्यान पूरी तरह से इसकी शब्दों को भांपने की काबिलियत पर लगा हुआ है। अंग्रेज़ी के फुल स्टाप को पूर्णविराम में बदल देना भी एक अच्छा कदम साबित हुआ। अन्य ट्रांसलिटरेशन प्रोग्रामों की तरह ये पूरी तरह तार्किक, या लौजिकल नहीं है। कहें तो काफी प्रिडिक्टिव, यानी कि भंपनशाली है। अगर आप रोमन लिपि में हिन्दी लिखने में कुछ गलती कर भी देंतो ये काफी हद तक उसे सुधार लेगा। लेकिन इसके अपने नुकसान भी हैं। जैसा की हर उस चीज़ के साथ होता है जो सिर्फ़ आदेश नहीं लेती, ये प्रोग्राम अपनी अक्ल लगाने के चक्कर में कई बार दिक्कत भी दे सकता है। जहां भी भांपना आ जाता है वहाँ हर वो चीज़ जो भांपी जा सकती है सही होगी। लेकिन हर वो जो सोची जा सकती है उसका सही होना ज़रूरी नहीं है। जैसे कि ये शब्द: प्रिडिक्तिव, जो कि लिखा जाना चाहिए ’प्रिडिक्टिव’। अभी तक के लेखांतरण में ये उन कुछ चुनिन्दा शब्दों में से है जिनके लिए 'बरहा' का प्रयोग करना पडा। भांपने के विपरीत, 'बरहा' जैसे प्रोग्राम जो नियमबद्ध हैं वो शुरुआती दिक्कतें तो ज़रूर देते हैं लेकिन एक बार नियमों से जान पहचान होने के बाद हर वो शब्द जो आप सोच सकते हैं, लिखा जा सकता है क्योंकि बारहा सोचता नहीं है। वो सिर्फ़ नियमबद्ध रूप से निर्देशों का पालन करता है। इसलिए भांपने और परिणामस्वरूप ग़लत भांपे जाने की कोई संभावना ही नहीं है। अगर ब्लौगर का ट्रांसलिटरेशन एक ऐसा व्यक्ति है जो आपकी ग़लतियों से भी ये समझने की कोशिश करता है कि आप क्या कहना 'चाह रहे होंगे' तो 'बारहा' एक ऐसा व्यक्ति है जो सिर्फ़ पूर्वनिर्धारित भाषा ही समझता है। आप ग़लत बोलेंगे तो वो उसे सही करके नहीं समझेगा। लेकिन ब्लौगर ये निर्धारित कैसे करेगा कि आप गलती ही कर रहे हैं और ऐसा कुछ कहने की कोशिश नहीं कर रहे जो वो ना 'भांप' सके? यहाँ 'बारहा' वही समझेगा जो आप कह रहे हैं क्योंकि 'बारहा' अपना दिमाग नहीं लगाता। सिर्फ़ निर्देशों का अनुसरण करता है। इसलिए अगर आप उसके नियमों को समझ गए हैं तो कुछ भी जो आप 'सोच' सकते हैं, कह सकते हैं। वो आपको ये बताने की ज़िद नहीं करेगा कि आप क्या 'कहना चाह रहे होंगे' मगर शायद रोमन लिपि का प्रयोग ढंग से कर नहीं पा रहे।
दोनों में फ़र्क सोचने वाले और मानने वाले का है।
अब नींद बहुत आ रही है। सोना चाहिए।