Saturday, January 09, 2010

रात

सीने में रात भरे हर रात यूं निकलती है

कभी मैं इसको भरता हूं कभी ये मुझे निगलती है

­­इन आवारा कदमों तक जब महक रात की जाती है

फिर हाथ जेब में जाते हैं फिर नज़र झुकी उठ जाती है

सीने में रात भरे हर रात यूं निकलती है

कभी मैं इसमें कभी ये मुझमें मैं चलता हूं ये बहती है

किसी रीढ़ के कोने से कोई दर्द जवां कर लाती है

फिर कन्धे ऊंचे होते हैं फिर लहर वो आके जाती है

सीने में रात भरे हर रात यूं निकलती है

तिनके का सहारा होता है मैं जलता हूं ये सुलगती है